प्राचीन काल की बात है,भारत के एक राज्य में एक महान प्रातापी राजा राज करता था । उसके नाम था जयसिंह ।
वह बहुत ही समपन्न राजा था । पड़ोसी राज्यों के सभी राजा उससे डरते थे और प्रत्येक महीने भेंट स्वरूप सोने
और चाँदी के आभूषण तथा हीरे ज़वारात उसे भेंंट किया करते थे ताकि राजा हमेशा उनसे प्रसन्न रहे और उनके राज्य पर आक्रमण करने के बारे में विचार भी न करें ।
जयसिंह के तीन पुत्र थे - रविसिंह, केशवसिंह और माधोसिंह । एक दिन राजा ने अपने तीनों पुत्रों को अपने पास बुलाया और उनसे कहा कि हमारे सभी पड़ोसी राजा हमारी तलवार की धार से भय खाते हैं और हमारा अनुसरण करते हैं । इस देश के लगभग सभी राजाओं के साथ हमारी संधी है और वे सब हमारी अधीनता स्वीकार करते हैं लेकिन बस एक राजा है जो हमारा और हमारे विचारों का विरोधी है और उसी की वजह से हम आज तक चक्रवर्ती सम्राट नहीं बन पाए । उस राज्य का राजा शरणनाथ हमारा सगा भाई है यानि तुम्हारा चाचा । रियासत के बँटवारे के समय हमारे पिताजी ने शरणनाथ को उसके कुटिल स्वभाव की वजह से दूसरे राज्य का शासक बना दिया था और तब से वो हमारे राज्य से शत्रता निभाने का
एक भी मौका नहीं छोड़ता है । मैं तुम तीनों को एक वर्ष का समय देता हूँ । तुम तीनों में से जो भी हमारे और शरणनाथ के बीच की शत्रुता को समाप्त करेगा उसे हम इस राज्य का उत्तराधिकारी बना देंगे ।
राजा की आज्ञा मानकर तीनों राजकुमार राज्य से प्रस्थान कर गए और योजनाएँ बनाने लगे ।
तीन माह बीत जाने के पश्चात राजकुमार रविसिंह और राजकुमार केशव सिंह अपने-अपने रथों पर बैठकर राज महल की ओर भागते हुए आए । राजा जयसिंह ने राजकुमारों से इस प्रकार भागते हुए आने की वजह पूछी।
महाराज का प्रश्न सुनकर राजकुमार रविसिंह ने बोलने प्रारंभ किया । उन्होंने बताया कि मैंने और भ्राता केशवसिंह ने मिलकर शरणनाथ चाचा के राज्य पर आक्रमण करने की योजने बनाई । हमने सोंचा कि राज्य पर आक्रमण करने के बाद हम उन्हें बंदी बना लेंगे और उन्हें आपके समक्ष प्रस्तुत कर देंगे और तब आप उन्हें अपने हृदय की बात बताकर अपने और उनके बीच की शत्रुता को समाप्त कर देंगे । सिंहगढ़ राज्य के महाराज चित्रसेन मेरे मित्र हैं । हम दोनों को उनकी सेना का समर्थन प्राप्त हुआ और हमने चाचाश्री के राज्य पर आक्रमण कर दिया किंतु हमारी योजना विफल रही और चाचाश्री के सैन्यबल के आगे महाराज चित्रसेन ने हार मान ली और बीच में ही युद्ध छोड़कर भाग गए ।
हम दोनों ने हमारी बची हुई सेना के साथ एक प्रहर तक युद्ध किया लेकिन अंत में हमारी पराजय हो गई । शरणनाथ काका ने हमें बंदी बनाने के बजाए हमें अपमानित करके अपने राज्य से भगा दिया ।
राजकुमारों की बात सुनकर महाराज जयसिंह ने कुछ नहीं कहा और चुचचाप अपने कक्ष में लौट गए ।
एक वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बचा था कि राजकुमार माधोसिंह एक राजा के साथ उन्हीं के रथ पर बैठकर राजमहल की ओर आए । वो राजा और कोई नहीं खुद महाराज शरणनाथ थे ।
( इस कहानी का दूसरा भाग कुछ समय बाद प्रकाशित
होगा । )